April 8, 2025
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गत  वर्ष 2023  में  सुप्रीम कोर्ट के  तीन जज बेंच जिसमें भारत के मुख्य न्यायधीश डी.वाई.चंद्रचूड़, जस्टिस पी.एस.नरसिम्हा और जस्टिस जे.बी. पारदीवाला शामिल थे, ने एक  जनहित  याचिका पर सुनवाई  एवं विचार करने से इनकार कर दिया था  जिसमें लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (आर.पी. एक्ट), 1951 की मोजूदा धारा 62(5) को चुनौती दी गयी थी जिसके अनुसार  जेल/कारवास में बंद कैदियों (बंदियों) और पुलिस की वैध कस्टडी (हिरासत) में भेजे गए व्यक्ति चुनाव में मतदान ही नहीं कर सकता है.

इसी  बीच पंजाब एवं हरियाणा  हाईकोर्ट के एडवोकेट और चुनावी विश्लेषक  हेमंत कुमार ( 9416887788) ने बताया कि सर्वप्रथम   जनवरी, 1983 में सुप्रीम कोर्ट के दो जज बेंच ने और उसके बाद जुलाई, 1997 में सुप्रीम कोर्ट के तीन जज बेंच ने लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 की उपरोक्त धारा 62(5) को कानूनन वैध घोषित किया था.

बहरहाल, मौजूदा चुनाव सम्बन्धी कानूनी प्रावधानों   के बारे में जानकारी देते हुए हेमंत ने  बताया कि हमारे देश में चुनावों  में मतदान करने का अधिकार संवैधानिक अर्थात  मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राईट) नहीं है बल्कि कानूनी अधिकार (लीगल राइट) है जिस पर संसद द्वारा   चुनावी  कानून द्वारा उचित नियंत्रण लगाया जा सकता है.

वर्तमान में लागू कानूनी प्रावधानों के अनुसार   न केवल वह  व्यक्ति  जिसे  कोर्ट द्वारा किसी केस में ट्रायल ( कानूनन विचारण प्रक्रिया)  के बाद   दोषी (अपराधी ) घोषित कर कारावास (जेल ) का दंड दिया  गया हो बल्कि  आरोपी व्यक्ति  (अभियुक्त) भी जिसे कोर्ट द्वारा   पुलिस कस्टडी (रिमांड) या न्यायिक हिरासत (जेल)  में भेजा गया हो,  उसे भी चुनावों में वोट डालने का अधिकार  नहीं है.  हालांकि जिन व्यक्ति को किसी  उपयुक्त  कानून के अंतर्गत  प्रिवेंटिव डिटेंशन (निवारक निरोध / नज़रबंद) किया गया हो, उस पर वोट न डाल सकने  का ऐसा कानूनी प्रतिबन्ध लागू नहीं होता है.

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