देश भर में सुप्रसिद्घ ऐतिहासिक व धार्मिक स्थल कपाल मोचन विभिन्न वर्गो, धर्मो तथा जातियों की एकता का प्रतीक है। कपाल मोचन तीर्थ यमुनानगर जिले में सिंधुवन में बिलासपुर के पास स्थित है। देश के कोने-कोने से लाखों की संख्या में हिन्दू, मुस्लिम तथा सिक्ख श्रद्घालु हर वर्ष कार्तिक मास की पूर्णिमा के अवसर पर यहां लगने वाले विशाल मेले में भाग लेते है तथा मोक्ष की कामना से तीन पवित्र सरोवरों क्रमश: कपाल मोचन सरोवर, ऋण मोचन सरोवर व सूरजकुण्ड सरोवर में स्नान करते हैं। इस वर्ष यह मेला 4 नवम्बर से 8 नवम्बर तक लगेगा। प्रशासन द्वारा कपाल मोचन मेले की तैयारियां शुरू कर दी गई है और मेले की तैयारियों पर उपायुक्त राहुल हुड्डïा नजर रखे हुए है।
कपाल मोचन तीर्थ स्वयं में प्राचीन इतिहास समेटे हुए है। पुराणों के अनुसार कपाल मोचन तीर्थ तीनों लोकों के पाप से मुक्ति दिलाने वाला स्थल है। इसके पवित्र सरोवरों में स्नान करने से ब्रहम हत्या जैसे महापाप का निवारण होता है। आदि काल में कार्तिक पूर्णिमा की अर्धरात्रि के समय ही भगवान शिव की ब्रहम कपाली इसी कपाल मोचन सरोवर में स्नान करने से दूर हुई थी।
एक प्राचीन कथा के अनुसार सिंधु वन का यह स्थान ऋषि मुनियों की यज्ञस्थली रहा है। प्राचीनकाल से ही इस भू-भाग पर पांच तीर्थ कपालेश्वर महादेव (कलेसर) तथा चण्डेश्वर महादेव (काला अम्ब) स्थित है, इनके मध्य 360 यज्ञ कुण्ड है। इनमें कपालेश्वर तीर्थ प्रमुख एवं केंद्र बिन्दु है। राजा परीक्षित के शासन काल में कलयुग के आगमन पर ऋषि मुनियों ने एक महायज्ञ का आयोजन किया। यज्ञ में आहुति डालने के लिए ब्रह्मïा, विष्णु एवं भगवान शिव को बुलाया गया। यज्ञ में आहुति के समय प्रजापति ब्रह्मïा जी ने कहा कि मैं सबसे बडा हूं क्योंकि मैं संसार का रचयिता हूं। इसलिए आहूति मेरे हाथ से डाली जाएगी, लेकिन विष्णु भगवान ने कहा कि मैं संसार का पालक हूं। अत: आहूति मेरे हाथ से डाली जाएगी।
इस पर भगवान शिव शंकर ने कहा कि मैं संसार का संहारक हूं, आहूति मेरे हाथ से डाली जाएगी। तब कलयुग ने आपत्ति करते हुए कहा कि मेरा आगमन हो चुका है और आहूति मेरे हाथ से डाली जाएगी। इस पर शिव नाराज होकर आदि बद्री चले गए इसलिए कोई आहूति नहीं डाल सका। इस यज्ञ के सार से एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम सरस्वती रखा गया तथा ब्रह्मïा जी की बुद्घि को मलिन कर दिया तथा अपनी पुत्री के प्रति उनकी कुदृष्टिï हो गई। सरस्वती को इसका आभास होने पर वह अपनी सुरक्षा के लिए शिवालिक की पहाडिय़ों में आदि बद्री के स्थान पर तपस्या लीन भगवान शिव की शरण में चली गई।
ब्रह्मïा जी भी सरस्वती को ढूंढते ठीक शिव की तपस्या स्थली पर पहुंच गए और उन्होंने सरस्वती को उन्हें सांैपने का आग्रह किया। भगवान शिव के कहने पर सरस्वती आकाश की और चली गई तो ब्रह्मïा जी का पांचवा मुख ऊपर की ओर प्रकट हो गया। इस पर भगवान शिव ने क्रोध में आकर ब्रह्मïा जी के पांचवें मुख को काट दिया। इस प्रकार ब्रह्मïा जी पंचानन के स्थान पर चतुरानंन हो गए और भगवान शिव पर ब्रह्मï कपाली का दोष लग गया तथा सरस्वती इसी स्थान से नदी के रूप में परिवर्तित हो गई।
भगवान शिव पर ब्रह्मï कपाली का दोष लगने से माता पार्वती को बहुत दुख हुआ। ऐसा भी कहा जाता है कि इस दोष को दूर करने के लिए भगवान शिव ने पार्वती के साथ चार धाम तथा 84 तीर्थो का भ्रमण किया, परन्तु फिर भी यह दोष दूर नहीं हुआ। कांशी प्रवास के दौरान वे इस दोष से मुक्त रहे परन्तु नगर सीमा से बाहर निकलते ही यह दोष उन्हें पुन: लग गया। अन्तत: शिव पार्वती भ्रमण करते-करते कपाल मोचन के पास प्राचीन भद्रपुरी(वर्तमान में भवानीपुर)में राशि के समय एक ब्रह्मïण कर गऊंशाला में आ गए। रात्रि में भगवान शिव तो समाधिलीन हो गए, परन्तु पार्वती माता को चिन्ता के कारण नींद नहीं आई और उन्होंने मध्य रात्रि को एक गाय बछडे के बीच हुर्ई वार्तालाप को सुना। बछडा गाय से कह रहा था कि प्रात: जब ब्रह्मïण मुझे बधिया करेगा, तो मैं उसकी हत्या कर दूंगा। इस पर गाय ने कहा कि इससे तुम्हे ब्रह्मï हत्या का पाप लगेगा। तब बछडे ने कहा कि मुझे ब्रह्मï हत्या का दोष दूर करने का उपाय पता है।
नजदीक के सरोवर में स्नान करने से मेरा ब्रह्मï हत्या का दोष दूर हो जाएगा। प्रात: बधिया करते समय बछडे ने ब्राह्मïण का वध कर दिया। ब्रह्मï हत्या के कारण बछडे और गाय दोनो का रंग काला हो गया, तब बछडे ने गाय माता को अपने पीछे चलने को कहा। जब बछडा वर्तमान कपाल मोचन में गाय माता के साथ प्रवेश हुआ तो सरोवर को पार करते ही दोनों का रंग सफेद हो गया। केवल पांव कीचड में तथा सींग पानी के ऊपर होने के कारण उनका रंग काला रह गया। इसी प्रकार पार्वती जी के कहने पर शिव जी द्वारा सरोवर में स्नान करने पर उनकी ब्रह्मï हत्या का दोष दूर हो गया। शिव ने गाय बछडे से पूछा कि तुम्हे इस तीर्थ का कैसे पता लगा। तब बछडे ने भगवान शिव को अपने पूर्व जन्म में मनुष्य होने तथा इसी स्थान पर तप कर रहे दुर्वाशा ऋषि का मजाक उडाने पर दिए गए श्राप से पशु बनने तथा अन्तत: शिव-पार्वती जी के इस स्थान पर आगमन पर एवं उनके दर्शन से श्रापमुक्त होने की कथा विस्तार से सुनाई। ऐसी मान्यता है कि शिव भगवान के दर्शन के पश्चात गऊ बछडा दोनों मुक्ति पाकर बैकुंठ धाम चले गए।
धर्म ग्रंथों के अनुसार महाभारत के रचयिता महर्षि पराशर के पुत्र भगवान वेद व्यास की कर्म भूमि भी बिलासपुर रही है। उन्हीं के विश्राम स्थान का नाम व्यास आश्रम पडा। समय बीतने के साथ-साथ बकरवाला तथा कुरड़ी खेड़ा गांव के लोग व्यास आश्रम के साथ रहने लगे, जिससे इस स्थान का नाम व्यासपुर पडा। जो कलान्तर में बिलासपुर के नाम से प्रसिद्घ हुआ। व्यास आश्रम के पूर्व में एक मील की दूरी पर तीर्थ गंगा सागर(चंदाखेडी तीर्थ),रामसर(पीरूवाला तीर्थ)तथा श्रीकुण्ड तीर्थ एवं गंगा मंदिर जगाधरी स्थित है। व्यास आश्रम के पश्चिम में सरस्वती मंदिर है, जबकि उत्तर में तीर्थ कपाल मोचन स्थित है। इस पवित्र धाम में सोम सरोवर के अतिरिक्त ऋण मोचन, धनौरा रोड पर पूर्व दिशा की और सूर्यकुण्ड स्थित है। प्राचीन समय में यहा चन्द्रकुण्ड होने की मान्यता भी है, परन्तु इस समय इसके अवशेष नहीं है।
कपाल मोचन तीर्थ पर राम मंदिर के बारे में यह मान्यता है कि अकबर-ए-आजम के शासनकाल के समय तक इस स्थान पर आबादी नहीं थी, केवल जंगल ही था क्योंकि उस वक्त जनसंख्या कम थी। तीर्थ के समीप स्थित एक टीले पर झाडी के नीचे दूधाधारी बाबा केश्वदास जी तपस्या करते थे। एक दिन अकबर साम्राज्य के परगना सढौरा के काजी फिमूदीन जोकि निसंन्तान एवं वृद्घ थे, शिकार खेलते हुए पानी की तलाश में यहां आए तो उन्होंने तपस्यालीन महात्मा केशवदास तक पहुंचने का प्रयत्न किया, परन्तु जैसे ही वे उसके समीप पहुंचे तो अंधे हो गए
लेकिन जब महात्मा जी ने तपस्या उपरांत आंखे खोली तो कहा कि तुम उनकी समाधि की परिधि के अन्दर आ गए हो, इसलिए कुछ पीछे हट कर अपनी बात कहो तब काजी जैसे ही पीछे हटे तो उन्हे पुन: दिखाई देने लगा और उन्होंने स्वयं को निसन्तान होने की बात कही एवं संतान की कामना की। इस पर केशवदास जी ने उन्हे एक वर्ष बाद अपनी बेगम सहित आने को कहा। इसी अवधि में काजी जी के घर एक लड़का पैदा हुआ और एक वर्ष बाद काजी ने सपरिवार यहां आकर केशवदास जी को 1300 बीघा जमीन देकर भगवान श्रीराम जी का तीन मंजिला मंदिर बनवाया, जिसके ऊपर रोजाना चिराग जलाया जाता था। काजी महाश्य हर सांय चिराग देखकर ही खाना खाते थे। उन्हीं के वंशज के रूप मे सढौरा में आज भी काजी महौल्ला आबाद है। इस कारण हिन्दू व सिक्खों के अलावा मुस्लमान भी कपाल मोचन तीर्थ एवं मेला के प्रति श्रद्घा रखते है।